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लेखक की तस्वीरTanweer adil

Pipra Kothi (पिपरा कोठी): Journey from Sugar Factory to Indigo Factory.

अपडेट करने की तारीख: 2 जुल॰ 2022

पिपरा कोठी बिहार राज्य के पूर्वी चंपारण जिले के पिपरा कोठी प्रखंड में स्थित एक छोटा नगर है। यह तिरहुत डिवीजन के अंतर्गत आता है। यह जिला मुख्यालय मोतिहारी से दक्षिण की ओर 9 KM दूर स्थित है।


सामान्य इतिहास:

मुग़ल काल और शुरुआती ब्रिटिश काल में बिहार एक समृद्ध उद्योगिक और संम्पन्न छेत्र था, यहाँ चीनी, नील, अफीम (opium), और शोरा (बारूद: saltpetre) के के कारखाने थें, और ये यूरोपीयन व्यापारियों का पसंदीदा जगह बन गया था। बिहार में सबसे पहले डचों ने अपनी शोरा के कारखाने खोले, और बाद में ये उत्तरी बिहार में फ़ैल कर चीनी के कारखानों में अपना पैसा लगाया। इनके साथ फ़्रांसिसी और ब्रिटिश व्यापारियों ने भी अपने कारखाने लगाए।

इसी क्रम में "डचों" ने 18 वी. सदी के शुरुआत में पिपरा में चीनी मील का निर्माण किया और इसी के संचालन में एक कोठी का निर्माण कराया, जिसको आज भी पिपरा में देखा जा सकता है, और इसी के कारण इसका नाम पिपरा कोठी पड़ा। इसके कुछ हिस्से खँडहर में और कुछ मिलिट्री कैंप में तब्दील हो गए हैं।


पीपरा कारखाना डचों द्वारा चीनी उद्योग के लिए बनाया गया था, और फिर मुनाफे के लिए इसको नील के कारखाने में बदल दिया गया, बाद के वर्षों में जब नील उद्योग भी अपने अंतिम दिनों में था, तब इसको बेतिया राज को बेच दिया गया।

"चीनी उद्योग का पतन":

चीनी उद्योग में अंतिम उत्पाद को प्राप्त करने में लगने वाला लागत, व्यापारियों को परेशान कर रहा था और,1850 के आस-पास निर्यात के लिए प्राप्त उच्च कीमतों ने चीनी उद्योग को अंतिम झटका दिया। चीनी की जगह नील ने ले ली और चीनी मिलों को धीरे-धीरे नील के कारखानों में बदला जाने लगा।


उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ अन्य नील कारखाने पीपरा में थे, जो मूल रूप से एक डच कारखाना था, इसका अभिग्रहण 1835-1838 में मेजर नोएल एंड कंपनी (Major Noel & Co. ) से संबंधित एक समूह ने कर लिया। बाद में, जगौलिया (1848), लाहेरा (1859), हरदिया कोठी (1862) से संबंधित एक समूह को अभिग्रहण (कब्ज़ा) कर लिया गया और उसे नील के कारखानों में और अधिक लाभ के लिए बदल दिया गया।

मोतीपुर में डचों ने मूल रूप से 1789 की शुरुआत में एक चीनी कारखाना स्थापित किया था। लेकिन बाद में, 1816 में, यह नोएल एंड कंपनी के तहत एक नील चिंता बन गया।


"नील उद्योग का पतन":

  • नीला सोना कहे जाने वाले नील का अब समय ढलान पर था, जर्मन विज्ञानिकों के द्वारा कृतिम नील डाई के आविष्कार ने इस उद्योग को हिला डाला, लगभग 1900 ई से यह उद्योग 'यूरोप में कृत्रिम नील की प्रतिस्पर्धा से बरबाद होने लगा।

  • अनाज की कीमतों में वृद्धि ने जिले में अधिक खाद्य फसलों की खेती को प्रोत्साहित किया।

  • कृत्रिम डाई ने प्राकृतिक डाई की कीमत कम कर दी जो 232 प्रति कारखाना मन से 'रु. 1912-13 में १३० रुपये से गिर गई।जो बाद के वर्षों में और गिरकर रु. 100 प्रति मन चली गई।

  • *कृतिम नील के आविष्कार से पहले 65,000 मन के औसत उत्पादन के साथ 112 कारखाने, और 1914-15 के बाद मुकाबले 7,000 मन नील का उत्पादन करने वाली केवल 59 कारखाने बची थीं।

  • 1914-1918 के विश्व युद्ध ने एनिलिन रंगों (कृतिम नील रंग) की आपूर्ति को कम कर दिया और नील की कीमत बढ़कर 600 प्रति मन हो गई। चंपारण की कारखानों का लाभ आनुपातिक रूप से बढ़ा, लेकिन विवादों के कारण, खेती के तहत क्षेत्र में बहुत अधिक वृद्धि नहीं हुई। युद्ध के बाद कीमतें अपने पूर्व स्तर पर तेजी से गिर गईं। नील उद्योग का कोई महत्व नहीं रह गया और अंतत: 1931 में पूरी तरह से समाप्त हो गईं।

  • नील की खेती के तहत क्षेत्र स्वाभाविक रूप से कम हो गया और उद्योग का इतिहास धीरे-धीरे जमींदारों और किरायेदारों के बीच संबंधों के अधिक सामान्य इतिहास में विलीन हो गया।

पीपरा कारखाना डचों द्वारा चीनी उद्योग के लिए बनाया गया था, और फिर मुनाफे के लिए इसको नील के कारखाने में बदल दिया गया, बाद के वर्षों में जब नील उद्योग भी अपने अंतिम दिनों में था, तब इसको बेतिया राज को बेच दिया गया।


[पीपरा कोठी की दीवारों में, काम करने वाले मजदूरों की कहानियाँ छुपी हुई है, नीलहरों का अत्याचार, भूखमरी के शिकार लोग, जो दिन रात कम से कम कीमत पर कारखानों में काम करने को बाध्य थे, उनका सुध लेने वाला कोई नहीं था.

1917 में गांधी जी के "नील सत्याग्रह" और "कृतिम नील" की खोज ने इस उद्योग को काफी हानि पहुंचाई, और किसानों अपने पसंद की उपज पैदा करने छूट मिली।

अपने आस पास की जगहों से इतिहास कैसे गुजरा है, हमें मालूम होना चाहिए, और यह हमारा कर्तव्य है, की इसे हम अपने आने वाली पीढ़ी से साझा करे।]


Reference:

*"Gandhi ii's First Struggle in India" by P. C. Roy 'Choudhury (Navajivan Trust, Ahmadabad),

**"Camparan and Satyagraha" by Dr. Rajendra Prasad. Autobiography of Dr. Rajendra Prasad

"Quoted in Prof. I. Q. Sinha's Economic Annals of Bengal, MacMillan and Co .• Ltd" 1927.

"Bihar District Gazetteers: Champaran (1962)"

"Bihar District Gazetteers: Muaffarpur (1960)

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